अफ़ग़ान महिलाएँ इंसाफ़ से वंचित

महबूब ख़ान, संयुक्त राष्ट्र रेडियो

अफ़ग़ानिस्तान में परिवारों के झगड़ों में अदालती प्रक्रिया का सहारा लेने के बजाय समुदायों या ख़ानदानों के ज़रिए सुलह-सफ़ाई कराने की परम्परा रही है.

इसका नतीजा ये देखा गया है कि अक्सर महिलाओं पर ज़ुल्म करने वाले लोग अदालती प्रक्रिया का सामना करने से बच जाते हैं और ज़ुल्म की शिकार महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है.

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों का कहना है कि इस वजह से महिलाओं पर ज़ुल्म रुकने के बजाय फिर से होने की बहुत सम्भावनाएँ होती हैं क्योंकि महिलाओं पर ज़ुल्म करने वालों में अदालती प्रक्रिया और दंड भुगतने का कोई डर नहीं होता है.

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय – OHCHR ने एक ताज़ा रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि ज़ुल्म की शिकार महिलाओं पर समुदायों, परिवारों और ख़ानदानों की तरफ़ से सुलह-सफ़ाई का फ़ैसला स्वीकार करने का दबाव डाला जाता है.

इससे महिलाओं पर अत्याचार करने वाले पुरुषों या महिलाओं को न्याय के कटघरे में नहीं लाया जाता है और ज़ुल्म की शिकार महिलाओं को पूरी तरह न्याय नहीं मिल पाता है.

रिपोर्ट कहती है कि इसलिए महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा और ज़ुल्मों को अंजाम देने वालों को अक्सर सज़ाएँ नहीं मिल पाती हैं.

इनमें ख़ानदान की इज़्ज़त यानी Honour Killings के नाम पर होने वाली हत्याओं के मामले भी शामिल होते हैं.

रिपोर्ट में पेश किए गए आँकड़ों से पता चलता है कि साल 2016 और 2017 के दौरान ख़ानदानों की इज़्ज़त के नाम पर 280 हत्याएँ हुई थीं.

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त ज़ायद राआद अल हुसैन का कहना है कि इस तरह की सुलह-सफ़ाई का सहारा लेने और अदालती प्रक्रिया को नज़रअन्दाज़ करने के नतीजे ये निकलते हैं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और ज़ुल्म फिर होने की बहुत सम्भावनाएँ होती हैं.

ऐसा माहौल होने से देश की क़ानूनी व्यवस्था में महिलाओं का भरोसा टूट जाता है और इस तरह पूरी आबादी को भी अदालतों पर कोई भरोसा नहीं रहता है.